हरड़ और उसके सौ उपयोग भाग - ९

भगंदर :-

  • गुग्गुलासव - हरड़ ५ सेर, बहेड़ा ५ सेर, आंवला १३ छ्टांग, गुग्गुल १४६ तोला, दालचीनी, बड़ी इलायची, पीपरामूल. चव्य, चित्रकमूल, अजवायन, सौंठ, पीपल. मिर्च, तालिसपत्र, नागरमोथा, नागकेशर, कायफल, प्रत्येक १६-१६ तोला, सबको जौकुट १३ सेर जल में क्वाथ करें. सवा तीन सेर जल रहने पर छान कर गुड़ १० सेर, धाय के फुल १३ छ्टांग, मुनंका आधा सेर, अनारदाना आधा सेर, प्रत्येक द्रव्य का चूर्ण क्वाथ में डाल कर, मिटटी के चिकने पात्र में गुड़ घोल कर शेष औषधियों का चूर्ण डालकर पात्र का मुख बंद कर एक मास तक संधान करने के बाद छान कर बोतलों में रख लें. आधा तोला से ४ तोला तक आसव समान भाग जल के साथ दोनों समय सेवन करने से भगंदर, प्लीहा, उदर रोग, उरुस्तम्भ, कामला, श्वास,  कास, कृमि, कुष्ठ और प्रमेह नष्ट होते है. इसे संधान विधि समाप्त होने के पश्चात् छान कर ६ मास पर्यंत गन्ने के सिरके के पात्र में रखने का विधान है. इस प्रकार १+६=७ मास पश्चात् यह प्रयोग योग्य होता है. भोजन के मध्य और प्रत्येक ग्रास खाने के बाद इसका सेवन करना चाहिए.
  • खादिरादि क्वाथ - हरड़, बहेड़ा, आंवला, खैरसार, इन चारों को जौकुट चूर्ण ढाई या तीन तोला, आधा सेर पानी में पकाकर चतुर्थांश क्वाथ कर उसमे भैंस का घी और वायविडंग का चूर्ण मिलाकर पीने से भगंदर रोग दूर होता है.
  • त्रिफला, भैंसा गूगुल, वायविडंग का क्वाथ नित्य पीने और जब जब प्यास लगे खैर का रस मिला जल पीने से भगंदर अवश्य नष्ट हो जाता है.
  • त्रिफला, वायविडंग, खैरसार १-१ भाग, पीपल २ भाग सबका चूर्ण कर ६ माशे चूर्ण शहद और टिक के तेल में मिलाकर चाटने से कृमि, कुष्ठ, प्रमेह और क्षय नष्ट हो जाता है तथा भगंदर और नाड़ी व्रण (नासूर) भर जाता है.
  • ढाई तोला त्रिफला आध पाव पानी में पकावें. एक छ्टांग शेष रहने पर छानकर शीशी में रख दें. इस त्रिफला क्वाथ में बिलाव की हड्डी घिसकर उसमें बत्ती भिगो कर भगंदर के अंदर रखने से भगंदर, नासूर और दूषित व्रण और दूषित व्रण शीघ्र अच्छे हो जाते है



पुरुष रोग 

प्रमेह :-

  • हरड़, वच, खस, गिलोय का क्वाथ, शहद मिलाकर पीने से कफज प्रमेह नष्ट होता है
  • हरड़, आंवला, मोथा, खस का क्वाथ बनाकर शहद मिलाकर पीने से पित्तज प्रमेह दूर होता है
  • त्रिफला, कूड़ा की छाल, दारू हल्दी, नागरमोथा, बीजबंद का क्वाथ बनाकर शहद म्मिलाकर पीने से हर प्रकार का प्रमेह अच्छा होता है.
  • त्रिफला, दारू हल्दी, नागरमोथा, देवदारु का काढ़ा शहद मिलाकर पीने से प्रमेह नष्ट होता है.
  • त्रिफलादि पाक - त्रिफला चूर्ण आध पाव लेकर पाव भर जल में भिगो दें, दुसरे दिन उसे एक पाव घी में मंदाग्नि पर भून लें, फिर उसमें पोहकर मूल, चित्रक, सौंठ, मिर्च, पीपल, इलायची, मोथा, तज, पत्रज प्रत्येक ८-८ माशे, धनिया छिलका रहित २ तोले सबका चूर्ण मिलावें, फिर १ सेर मिश्री की चाशनी बना उसमें ६-६ माशे केशर और शिलाजीत मिलाकर उक्त चूर्ण डालकर पाक जमा दें. यदि अवलेह बनाना हो तो उसमें १ पाव शहद मिलाकर रख लें. दो-दो तोला दोनों समय सेवन करने से सब प्रकार के प्रमेह, सिर के सब रोग, नेत्राभिश्यंद, प्रतिश्याप और रक्त विकार दूर हो जाते है


बलवीर्य वृद्दि हेतु :-

  • त्रिफलादि पाक - १ सेर त्रिफला चूर्ण १ पाव घी में भूनकर उसमें, चित्रक, छोटी इलायची, मोथा, तज, प्रत्येक ७-७ माशे, पोहकर मूल, शिलाजीत ६-६ माशे, त्रिकुटा, धनिया की मींग २-२ तोले, सबका चूर्ण, किशमिस, मुनक्का पिसे हुए ५-५ तोला मिला दें. फिर १ सेर मिश्री की चाशनी (३ माशे केशर मिली हुई) में द्रव मिलाकर पाक जमा दें या अवलेह रखें. २-२ तोले की मात्रा में प्रात: सायं दूंध के साथ लेने से वीर्य की शुद्धि आयर वृद्धि होती है तथा नेत्र ज्योति बढ़ती है.


शीघ्रपतन :-

  • बड़ी हरड़, असगंध, शतावर, मुलेठी, गोखरू, कालीमिर्च, इसबगोल की भूसी, सब समान भाग कूटपीस छान कर शीशी में रख लें. सुबह-शाम ४-४ माशे दवा दूध के साथ लेने से वीर्य पुष्ट होता, स्वप्नदोष रुकता है और शीघ्रपतन दूर होता है. ४० दिन तक संयम-नियम के साथ सेवन करें.


अष्ठीला या प्रोटेस्ट ग्लैंड-वृधि :- 
(Enlargement of Prostate Gland)

  • यह वृधि प्राय: वृद्धों को होती है और आधुनिक डॉक्टर इसके लिए शल्य क्रिया की सलाह देते है, किन्तु इसका शस्त्र कर्म एक गंभीर शल्यकर्म है और सदैव सफलता में आशंका रहती है. ग्रंथि की वृधि से बार-बार मूत्र-प्रवृति होती है, किन्तु मूत्र में अवरोध उत्पन्न होता है, जिससे मुष्क, वंक्षण, कटी और वस्ति प्रदेश में शूल होता है, छोटी हरड़ का चूर्ण १६ भाग, तुत्थ (तूतिया) १ भाग दोद्नो को नीम्बू के रस की ७ भावनायें देकर चूर्ण को सुरक्षित रख लें, २ रत्ती से ४ रत्ती तक शहद के साथ दिन में तीन बार प्रयोग करने से एक-डेढ़ मास में ३-४ अंगुलवृद्दि भी प्राकृतावस्था में आया जाती है. परीक्षित लाभदायी योग है


फिरंगवात :-

  • उपदंश-ग्रस्त स्त्री से मैथुन करने, उपदंश-ग्रस्त रुग्ण के मूत्र पर पेशाब करने, उपदंश-ग्रस्त के साथ भोजनादि के संसर्ग से वातकुपित होकर फिरंगवात रोग उत्पन्न करता है, अथवा क्षीण पुरुष के अत्यंत मैथुन करने से त्रिदोष कुपित होकर आंगतुक संज्ञक फिरंगवात उत्पन्न करता है फिरंगवात होने पर शरीर में ददौरे पड़कर उनमे चींटी काटने के समान पीड़ा होती हो, पीठ और जांघ में पीड़ा तथा शोथ हो तो समझना चाहिए की फिरंगवात शरीर की संधियों और नसों में प्रविष्ट हुआ है. यदि लिंगेंन्द्रिय पर थोड़ी फुंसियाँ और फटने के चिन्ह हों तो समझना चाहिए कि फिरंगवात त्वचा पर ही है, और यदि ये सब लक्षण बहुत समय तक रहें तो समझना चाहिए की फिरंगवात त्वचा के भीतर और बाहर सर्वत्र प्रविष्ट हो गया है शरीर क्षीणता, बलनाश, अग्निमांघ तथा रक्त मांस नष्ट होकर शरीर अस्थि पंजर मात्र हो जाए तथा नाक गल जाये, तो इन उपद्रवों से ग्रस्त र्रोगी का बचना बहुत कठिन है 
                                     ७ टंक हरड़ की छाल, ८ टंक नीम्बू के पत्ते, ७ टंक आंवला, १ टंक हल्दी और १ टंक पारा, इन सबको खूब खरल क्र रख लें. प्रतिदिन ४ माशे की मात्रा में शीतल जल के साथ सेवन करने से एक सप्ताह में आंतरिक और बाह्य दोनों और की फिरंगवात दूर होती है

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